Bhagavad Gita Chapter 6 in Hindi – ध्यान योग के 47 श्लोकों का सरल अर्थ
Bhagavad Gita Chapter 6 in Hindi – ध्यान योग के 47 श्लोकों का सरल अर्थ
✅ 📌 प्रस्तावना (Prastavna)
भगवद गीता अध्याय 6 – ध्यान योग श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को ध्यान की महिमा और साधना की विधि समझाने वाला अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है।
इस अध्याय में कुल 47 श्लोक हैं जिनमें ध्यान योग के माध्यम से आत्म-संयम, मन का स्थिर होना, और ईश्वर से एकाकार होने के रहस्य को सरल भाषा में समझाया गया है।
ध्यान योग में श्रीकृष्ण बताते हैं कि साधक को किस प्रकार मन को नियंत्रित कर एकाग्रचित्त होकर साधना करनी चाहिए।
ध्यानस्थ योगी किस तरह कर्मों से परे, वासनाओं से मुक्त और संसार के मोह से ऊपर उठकर ब्रह्म को अनुभव करता है — यही इसका मुख्य संदेश है।
इस अध्याय में श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा योगी वही है जो निष्काम भाव से तप करता है, इंद्रियों को संयमित रखता है और समभाव में स्थित रहता है।
अर्जुन के मन में जो भी प्रश्न थे — जैसे साधना कैसे करें, मन कैसे वश में रखें, सफलता के लिए कौन सी स्थितियाँ जरूरी हैं — इनका विस्तार से समाधान ध्यान योग में मिलता है।
👉 अगर आपने पिछले अध्याय नहीं पढ़े हैं, तो Chapter 1, Chapter 2, Chapter 3, Chapter 4 और Chapter 5 जरूर पढ़ें।
📜 भगवद गीता अध्याय 6 – ध्यान योग : श्लोक 1 से 47 तक (संस्कृत + हिंदी अर्थ)
1. श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच ।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
सरल अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले — जो कर्म के फल पर आश्रित नहीं रहता और अपने कर्तव्य कर्म को करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है; केवल अग्नि न जलाना या कर्म न करना संन्यास नहीं है।
2. श्लोक 2
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
सरल अर्थ:
हे पाण्डव! जिसे संन्यास कहते हैं वही योग है, क्योंकि जो संकल्पों का त्याग नहीं करता वह योगी नहीं हो सकता।
3. श्लोक 3
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
सरल अर्थ:
जो योग की शुरुआत करना चाहता है उसके लिए कर्म साधन है; लेकिन जो योग में स्थिर हो गया है उसके लिए शांति ही साधन है।
4. श्लोक 4
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
सरल अर्थ:
जब मनुष्य इंद्रिय विषयों और कर्मों में आसक्त नहीं रहता और संकल्पों का त्याग कर देता है, तब वह योगारूढ़ कहा जाता है।
5. श्लोक 5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
सरल अर्थ:
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने ही द्वारा अपना उद्धार करे और स्वयं को नीचे न गिराए, क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।
6. श्लोक 6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
सरल अर्थ:
जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, उसके लिए वही आत्मा मित्र है; लेकिन जिसने मन को वश में नहीं किया, उसके लिए वही आत्मा शत्रु के समान हो जाती है।
7. श्लोक 7
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥
सरल अर्थ:
जिसने अपने मन को जीत लिया है और जो शांत है, उसके लिए परमात्मा समभाव में स्थित रहता है — वह सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में सम रहता है।
8. श्लोक 8
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
सरल अर्थ:
जो ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, स्थितप्रज्ञ है और जिसने इंद्रियों को जीत लिया है, वह योगी समदर्शी कहलाता है — उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान हैं।
9. श्लोक 9
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
सरल अर्थ:
जो सुहृद, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, बन्धु, सज्जन या पापी — सभी में समान बुद्धि रखता है, वही श्रेष्ठ योगी है।
10. श्लोक 10
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
सरल अर्थ:
योगी को चाहिए कि एकांत स्थान में अकेला बैठकर मन और इंद्रियों को वश में रखकर निराश और निष्काम होकर ध्यान साधना करे।
11. श्लोक 11
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
सरल अर्थ:
साफ-सुथरी जगह पर आसन बिछाए — न बहुत ऊँचा, न बहुत नीचा — कुशा, मृगछाला और वस्त्र से बने आसन पर बैठे।
12. श्लोक 12
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
सरल अर्थ:
उस आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करे, मन और इंद्रियों को वश में रखे और आत्मशुद्धि के लिए ध्यान साधना करे।
13. श्लोक 13
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
सरल अर्थ:
पीठ, गर्दन और सिर को सीधा और स्थिर रखे, दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर टिकाए और चारों ओर न देखे।
14. श्लोक 14
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
सरल अर्थ:
मन को शांत, भयमुक्त और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए साधक को मन को नियंत्रित कर मेरी शरण में रहना चाहिए।
15. श्लोक 15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
सरल अर्थ:
ऐसा योगी जो मन को नियंत्रित कर इस प्रकार ध्यान करता है, वह मेरी स्थिति को प्राप्त कर परम निर्वाण शांति को पाता है।
16. श्लोक 16
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
सरल अर्थ:
हे अर्जुन! जो अत्यधिक खाता है या जो बिल्कुल नहीं खाता, उसके लिए योग नहीं होता; जो बहुत सोता या बहुत जागता है, वह भी योग के योग्य नहीं है।
17. श्लोक 17
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
सरल अर्थ:
जो आहार, विहार, कर्म और सोने-जागने में संयमित है — उसके लिए योग दुखों का नाश करता है।
18. श्लोक 18
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
सरल अर्थ:
जब साधक का चित्त पूरी तरह नियंत्रित होकर आत्मा में स्थित हो जाता है और वह सब कामनाओं से मुक्त हो जाता है — तभी उसे योगी कहा जाता है।
19. श्लोक 19
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
सरल अर्थ:
जैसे बिना हवा की जगह में दीपक की लौ नहीं डोलती, वैसे ही नियंत्रित चित्त वाला योगी ध्यान करते हुए स्थिर रहता है।
20. श्लोक 20
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
सरल अर्थ:
जहाँ योगाभ्यास से मन पूरी तरह शांत हो जाता है और साधक आत्मा को आत्मा में देखकर ही संतुष्ट रहता है।
21. श्लोक 21
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥
सरल अर्थ:
जिस स्थिति में साधक ऐसा परम सुख अनुभव करता है, जो इंद्रियों से परे है और केवल बुद्धि से ही ग्रहण किया जा सकता है — उस स्थिति से फिर वह विचलित नहीं होता।
22. श्लोक 22
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥
सरल अर्थ:
जिस स्थिति को प्राप्त कर साधक को इससे बढ़कर कुछ और नहीं लगता और भारी से भारी दुख भी उसे विचलित नहीं कर पाता।
23. श्लोक 23
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
सरल अर्थ:
यह दुखों से पूर्ण विमुक्ति ही योग कहलाता है — इसे दृढ़ निश्चय और निराश न होने वाले चित्त से साधना चाहिए।
24. श्लोक 24
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥
सरल अर्थ:
सभी कामनाओं को जड़ से त्याग कर मन द्वारा इंद्रियों को हर दिशा से नियंत्रित करना चाहिए।
25. श्लोक 25
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥
सरल अर्थ:
धीरे-धीरे दृढ़ बुद्धि से मन को शांत करता हुआ उसे आत्मा में स्थित करे और फिर कुछ भी न सोचे।
26. श्लोक 26
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
सरल अर्थ:
मन जहाँ-जहाँ चंचलता से भागे, वहाँ-वहाँ से उसे लौटाकर आत्मा में ही स्थिर करना चाहिए।
27. श्लोक 27
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
सरल अर्थ:
जिसका मन शांत है, जिसकी वासनाएँ शांत हो गई हैं — ऐसा योगी परम सुख प्राप्त करता है और पाप रहित ब्रह्मरूप हो जाता है।
28. श्लोक 28
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥
सरल अर्थ:
इस प्रकार निरंतर साधना करने वाला पाप रहित योगी ब्रह्म से जुड़े परम सुख को प्राप्त करता है।
29. श्लोक 29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥
सरल अर्थ:
योगयुक्त आत्मा वाला योगी सब जीवों में आत्मा को देखता है और सब जीवों को अपनी आत्मा में देखता है।
30. श्लोक 30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
सरल अर्थ:
जो मुझे सब जगह देखता है और सबको मुझमें देखता है — वह मुझसे कभी दूर नहीं होता और मैं उससे दूर नहीं होता।
31. श्लोक 31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
सरल अर्थ:
जो योगी एकत्व में स्थित होकर सब प्राणियों में मुझे ही भजता है — वह चाहे जैसा कर्म करता रहे, मुझमें ही रहता है।
32. श्लोक 32
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
सरल अर्थ:
हे अर्जुन! जो योगी अपने समान सबको सुख-दुख में समान देखता है — वही श्रेष्ठ योगी माना जाता है।
33. श्लोक 33
अर्जुन उवाच।
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
सरल अर्थ:
अर्जुन बोला — हे मधुसूदन! आपने जो समभाव वाला योग बताया है, मुझे उसमें स्थिरता नहीं दिखती क्योंकि मन बड़ा चंचल है।
34. श्लोक 34
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
सरल अर्थ:
हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल, बलवान और हट्टी है — इसे वश में करना वायु को रोकने जैसा कठिन लगता है।
35. श्लोक 35
श्रीभगवानुवाच।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
सरल अर्थ:
भगवान बोले — हे महाबाहु अर्जुन! इसमें शक नहीं कि मन चंचल और वश में करना कठिन है — परंतु अभ्यास और वैराग्य से इसे जीता जा सकता है।
36. श्लोक 36
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
सरल अर्थ:
जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग कठिन है; पर जिसने मन को वश में कर लिया है — वह प्रयास करके इसे प्राप्त कर सकता है।
37. श्लोक 37
अर्जुन उवाच।
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
सरल अर्थ:
अर्जुन ने पूछा — हे कृष्ण! जो श्रद्धा तो रखता है पर असंयमी है, उसका मन योग से हट जाए और वह सिद्धि न पाए — तो उसकी क्या गति होगी?
38. श्लोक 38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥
सरल अर्थ:
हे महाबाहु! क्या वह दोनों से विफल होकर बिखरे बादल की तरह नष्ट हो जाता है और ब्रह्मपथ में अनिश्चित होकर भटकता है?
39. श्लोक 39
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥
सरल अर्थ:
हे कृष्ण! कृपा कर इस संशय को पूरी तरह काट दीजिए — आपसे बढ़कर कोई भी इस संदेह को दूर करने में समर्थ नहीं है।
40. श्लोक 40
श्रीभगवानुवाच।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥
सरल अर्थ:
भगवान बोले — हे पार्थ! उस योगी का न इस लोक में और न परलोक में कोई नाश होता है। जो शुभ कर्म करता है वह कभी बुरा मार्ग नहीं पाता।
41. श्लोक 41
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
सरल अर्थ:
योग से च्युत साधक पुण्यलोकों में लंबे समय तक निवास करता है और फिर पवित्र व धनवान घर में जन्म लेता है।
42. श्लोक 42
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥
सरल अर्थ:
या फिर वह बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है — ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ है।
43. श्लोक 43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥
सरल अर्थ:
हे कुरुनन्दन! वहाँ वह अपने पिछले जन्म की बुद्धि को प्राप्त करता है और पुनः सिद्धि के लिए यत्न करता है।
44. श्लोक 44
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥
सरल अर्थ:
पूर्व अभ्यास के कारण वह विवश होकर भी उसी मार्ग की ओर खिंचता है — जिज्ञासु योगी वेदों के कर्मकांड से ऊपर उठ जाता है।
45. श्लोक 45
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥
सरल अर्थ:
जो योगी पूरे प्रयास से साधना करता है, पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों में सिद्धि प्राप्त करता है और फिर परम गति को प्राप्त होता है।
46. श्लोक 46
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
सरल अर्थ:
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है, कर्मियों से भी श्रेष्ठ माना जाता है — इसलिए हे अर्जुन! तू योगी बन।
47. श्लोक 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
सरल अर्थ:
सब योगियों में भी जो श्रद्धा से मेरे में लीन होकर मुझे भजता है — वही योगियों में सर्वश्रेष्ठ है।
✅ निष्कर्ष
ध्यान योग जीवन में आत्म-अनुशासन, मन का संयम और आत्म-ज्ञान की शक्ति को उजागर करता है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो साधक एकाग्रचित्त होकर ध्यान करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर परमानंद को प्राप्त करता है।
यह अध्याय मनुष्य को यह भी सिखाता है कि केवल कर्म और ज्ञान ही नहीं, ध्यान भी मोक्ष का महापथ है — और मन ही साधना का साधन भी है, बाधा भी।
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