भगवद गीता अध्याय 3 – कर्म योग के 43 श्लोकों का सरल अर्थ | Bhagavad Gita Chapter 3 in Hindi
भगवद गीता अध्याय 3 – कर्म योग के 43 श्लोकों का सरल अर्थ | Bhagavad Gita Chapter 3 in Hindi
👉 यदि आपने गीता के पहले दो अध्याय नहीं पढ़े हैं, तो अध्याय 1 – अर्जुन विषाद योग और अध्याय 2 – सांख्य योग पहले ज़रूर पढ़ें, जिससे यह अध्याय और भी स्पष्ट हो सके।
🕉️ प्रस्तावना
भगवद गीता का तीसरा अध्याय "कर्म योग" केवल एक धार्मिक उपदेश नहीं है, बल्कि यह जीवन की गहराइयों को समझाने वाला एक अद्भुत दर्शन है। यह अध्याय अर्जुन के भीतर उत्पन्न हुई उस जिज्ञासा और भ्रम से शुरू होता है, जहाँ वह ज्ञान और कर्म के बीच उलझ जाता है। श्रीकृष्ण इसे एक अवसर की तरह लेते हैं — अर्जुन ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता को यह स्पष्ट करने के लिए कि केवल ज्ञान या ध्यान नहीं, बल्कि निष्काम कर्म भी मुक्ति का मार्ग हो सकता है।
"कर्म करो, फल की चिंता मत करो" — यह वाक्य यहीं से जन्म लेता है और भारतीय संस्कृति की आत्मा बन जाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि कर्म का त्याग नहीं, बल्कि सही भावना से किया गया कर्म ही श्रेष्ठ है। यहाँ कर्म के प्रकार, यज्ञ की महिमा, समाज के संतुलन के लिए कर्म का महत्व, और स्वयं भगवान का भी कर्म में स्थित रहना — इन सभी विषयों का गूढ़ विवेचन किया गया है।
अर्जुन पूछता है कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर उसे युद्ध जैसे कर्म के लिए क्यों प्रेरित किया जा रहा है? श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं कि संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म से बच नहीं सकता। यहाँ तक कि शरीर को बनाए रखने के लिए भी कर्म आवश्यक है। इसलिए कर्म से भागने की बजाय उसे समझकर, पूर्ण श्रद्धा और निरपेक्षता से करना ही सच्चा योग है।
इस अध्याय में श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि योगी वह नहीं जो संन्यास ले ले, बल्कि वह है जो अपने कर्तव्य को ईश्वर को अर्पण करके करता है। यही कर्म योग है – जहाँ कर्म पूजा बन जाता है और जीवन एक यज्ञ।
इस पोस्ट में आपको भगवद गीता के अध्याय 3 के सभी 43 श्लोकों का सरल हिंदी अर्थ मिलेगा, जो न केवल पढ़ने योग्य हैं, बल्कि जीवन में उतारने योग्य भी हैं। यह ज्ञान विद्यार्थियों, गृहस्थों, संन्यासियों और हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण और शांतिमय बनाना चाहता है।
👉 श्रीकृष्ण केवल उपदेशकर्ता ही नहीं, बल्कि बाल्यकाल में भी उनकी लीलाओं से जीवन दिशा पाता है — जैसे माखन चोरी लीला में छिपा उनका प्रेम और माधुर्य।
🕉️ भगवद गीता अध्याय 3 – कर्म योग : श्लोक 1 से 43 तक (संस्कृत + हिंदी अर्थ)
श्लोक 1.
अर्जुन उवाच —
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥1॥
हिंदी अर्थ:
अर्जुन बोले — हे जनार्दन! यदि आपको ज्ञान (बुद्धि) कर्म से श्रेष्ठ लगता है, तो फिर आप मुझे इस भयंकर युद्ध में क्यों लगाते हैं?
श्लोक 2.
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥2॥
हिंदी अर्थ:
आपके मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। कृपया एक ऐसा मार्ग निश्चित रूप से बताइए, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त कर सकूं।
श्लोक 3.
श्रीभगवानुवाच —
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3॥
हिंदी अर्थ:
श्रीभगवान ने कहा — हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो मार्ग बताए गए हैं: सांख्य योगियों के लिए ज्ञानयोग और कर्मयोगियों के लिए कर्म का मार्ग।
श्लोक 4.
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥4॥
हिंदी अर्थ:
केवल कर्म न करने से कोई पुरुष कर्म रहित (नैष्कर्म्य) नहीं होता, और न ही केवल संन्यास लेने से सिद्धि प्राप्त होती है।
श्लोक 5.
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥5॥
हिंदी अर्थ:
कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से सभी व्यक्ति स्वतः कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं।
श्लोक 6.
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥6॥
हिंदी अर्थ:
जो व्यक्ति बाहर से इंद्रियों को रोक कर बैठा है, परंतु मन से विषयों का चिंतन करता है, वह मोहग्रस्त और कपटी कहलाता है।
श्लोक 7.
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥7॥
हिंदी अर्थ:
लेकिन जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को वश में कर निष्काम भाव से कर्म करता है, वही श्रेष्ठ माना जाता है।
श्लोक 8.
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥8॥
हिंदी अर्थ:
तू अपना नियत कर्म कर, क्योंकि कर्म अकर्म (कुछ न करना) से श्रेष्ठ है। बिना कर्म के शरीर का पालन भी संभव नहीं है।
श्लोक 9.
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥9॥
हिंदी अर्थ:
हे कौन्तेय! यज्ञ के लिए किए गए कर्म को छोड़कर बाकी सभी कर्म बंधन में डालने वाले होते हैं। इसलिए तुम आसक्ति रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करो।
श्लोक 10.
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥10॥
हिंदी अर्थ:
सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा ने यज्ञ सहित प्रजाओं को उत्पन्न किया और कहा — इस यज्ञ से तुम शुद्ध होगे और यह तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेगा।
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श्लोक 11.
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥11॥
हिंदी अर्थ:
देवताओं को यज्ञ से संतुष्ट करो, वे भी तुम्हें संतुष्ट करेंगे। इस प्रकार परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।
श्लोक 12.
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥12॥
हिंदी अर्थ:
यज्ञ से संतुष्ट देवता तुम्हें इच्छित भोग देंगे, परंतु उन्हें अर्पित किए बिना जो भोगता है, वह चोर है।
श्लोक 13.
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥13॥
हिंदी अर्थ:
यज्ञ के बाद बचे अन्न को खाने वाले पवित्र होते हैं और पापों से मुक्त हो जाते हैं, परंतु जो केवल अपने लिए पकाते हैं, वे पापी होते हैं।
श्लोक 14.
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥14॥
हिंदी अर्थ:
अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ से, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
श्लोक 15.
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥15॥
हिंदी अर्थ:
कर्म वेदों से उत्पन्न होता है, वेद अविनाशी ब्रह्म से। इसलिए सर्वव्यापक ब्रह्म सदा यज्ञ में स्थित है।
श्लोक 16.
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥
हिंदी अर्थ:
जो इस चक्र का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों में रमण करने वाला पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ जाता है।
श्लोक 17.
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥17॥
हिंदी अर्थ:
जो आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त और संतुष्ट है — उसके लिए कोई भी कर्म आवश्यक नहीं है।
श्लोक 18.
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥18॥
हिंदी अर्थ:
ऐसे आत्मज्ञानी को न तो कुछ करने से लाभ होता है और न ही कुछ न करने से हानि। उसे किसी पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं होती।
श्लोक 19.
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥19॥
हिंदी अर्थ:
इसलिए तुम निरंतर आसक्ति रहित होकर अपना कर्म करो, क्योंकि ऐसा कर्म करते हुए व्यक्ति परम लक्ष को प्राप्त करता है।
श्लोक 20.
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥20॥
हिंदी अर्थ:
राजा जनक जैसे महापुरुषों ने भी कर्म से ही सिद्धि प्राप्त की थी। इसलिए लोक कल्याण की दृष्टि से भी तुम्हें कर्म करना चाहिए।
श्लोक 21.
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥21॥
हिंदी अर्थ:
जो श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, सामान्य लोग भी वैसा ही करते हैं। वह जैसा उदाहरण प्रस्तुत करता है, समाज उसी का अनुसरण करता है।
श्लोक 22.
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥22॥
हिंदी अर्थ:
हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कोई भी कार्य करना शेष नहीं है, फिर भी मैं निरंतर कर्म करता हूँ।
श्लोक 23.
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥23॥
हिंदी अर्थ:
यदि मैं कर्म न करूं, तो हे अर्जुन! मनुष्य भी मेरे मार्ग का अनुकरण नहीं करेंगे और कर्म से विमुख हो जाएंगे।
श्लोक 24.
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥24॥
हिंदी अर्थ:
यदि मैं कर्म न करूं तो ये लोक नष्ट हो जाएंगे, समाज में मिश्रण उत्पन्न होगा और सारी प्रजा का विनाश हो जाएगा।
श्लोक 25.
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥25॥
हिंदी अर्थ:
हे भारत (अर्जुन)! जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति आसक्ति से कर्म करता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी लोक संग्रह के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करे।
श्लोक 26.
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥26॥
हिंदी अर्थ:
ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानी कर्मशील लोगों की बुद्धि में भ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहिए, बल्कि स्वयं भी युक्त होकर कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।
श्लोक 27.
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥
हिंदी अर्थ:
प्रकृति के गुणों से सभी कर्म संपन्न होते हैं, लेकिन अहंकार से अंधा व्यक्ति सोचता है कि ‘मैं ही करता हूँ।’
श्लोक 28.
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥28॥
हिंदी अर्थ:
हे महाबाहो! तत्व को जानने वाला व्यक्ति यह समझकर कि गुण ही गुणों में कर्म करते हैं, उनमें आसक्त नहीं होता।
श्लोक 29.
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥29॥
हिंदी अर्थ:
प्रकृति के गुणों से मोहित अज्ञानी लोग कर्म में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी व्यक्ति को उन्हें भ्रमित नहीं करना चाहिए।
श्लोक 30.
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥30॥
हिंदी अर्थ:
मुझमें सभी कर्मों को समर्पित कर, आत्मा में स्थित होकर, आशा और ममता से रहित होकर और मन के ताप से मुक्त होकर युद्ध करो।
श्लोक 31.
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥31॥
हिंदी अर्थ:
जो मनुष्य मेरे इस मत का श्रद्धा और बिना द्वेष के पालन करते हैं, वे भी कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
श्लोक 32.
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥32॥
हिंदी अर्थ:
जो मेरे इस उपदेश को द्वेष के साथ नहीं मानते, उन्हें तुम सब ज्ञानों से भ्रमित और विनष्ट मानो।
श्लोक 33.
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥33॥
हिंदी अर्थ:
ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही आचरण करता है। सभी जीव प्रकृति के अधीन हैं, फिर नियंत्रण से क्या होगा?
श्लोक 34.
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥34॥
हिंदी अर्थ:
हर इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष होते हैं। मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये दोनों मोक्ष के मार्ग में बाधा हैं।
श्लोक 35.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥35॥
हिंदी अर्थ:
अपने धर्म का पालन दोषयुक्त होने पर भी श्रेष्ठ है। दूसरे का धर्म अपनाना भय और विनाश का कारण बनता है।
श्लोक 36.
अर्जुन उवाच —
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥36॥
हिंदी अर्थ:
अर्जुन ने पूछा — हे वृष्णिवंशी! मनुष्य इच्छा न होने पर भी पाप क्यों करता है, जैसे कोई बलपूर्वक उसे करवा रहा हो?
श्लोक 37.
श्रीभगवानुवाच —
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥37॥
हिंदी अर्थ:
श्रीकृष्ण बोले — यह काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होता है। यह बहुत ही भयानक, पापकारी और शत्रु के समान है।
श्लोक 38.
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥38॥
हिंदी अर्थ:
जैसे धुएँ से अग्नि, धूल से दर्पण और गर्भ से भ्रूण ढँका रहता है, वैसे ही यह काम आत्मा को ढँक देता है।
श्लोक 39.
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥39॥
हिंदी अर्थ:
हे कौन्तेय! यह काम रूपी अग्नि आत्मज्ञानी का भी ज्ञान ढँक देता है, क्योंकि यह कभी तृप्त नहीं होता और नित्य शत्रु बना रहता है।
श्लोक 40.
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥40॥
हिंदी अर्थ:
काम का निवासस्थान इंद्रियाँ, मन और बुद्धि हैं। इन्हीं से यह काम शरीरधारी को भ्रम में डाल देता है और उसका ज्ञान ढँक देता है।
श्लोक 41.
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥41॥
हिंदी अर्थ:
इसलिए हे अर्जुन! पहले इंद्रियों को वश में करो और फिर इस पापरूपी शत्रु (काम) को नष्ट करो, जो ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करता है।
श्लोक 42.
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥42॥
हिंदी अर्थ:
इंद्रियाँ श्रेष्ठ मानी जाती हैं, उनसे भी श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि से भी परे आत्मा है।
श्लोक 43.
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥43॥
हिंदी अर्थ:
इस प्रकार आत्मा को बुद्धि से ऊपर जानकर, मन को स्थिर करो और हे महाबाहो! उस कामरूपी कठिन शत्रु को पराजित करो।
👉 यदि आप श्रीकृष्ण के गुणों को भक्ति से अनुभव करना चाहते हैं, तो यह सुंदर भजन Achyutam Keshavam ज़रूर पढ़िए।
Conclusion:
कर्म योग हमें सिखाता है कि कर्म से भागना नहीं है, बल्कि उसे समझदारी और समर्पण के साथ अपनाना है। यह अध्याय बताता है कि कर्म करना कोई बंधन नहीं, बल्कि मुक्ति का मार्ग है — यदि उसे सही भाव और उद्देश्य से किया जाए।
श्रीकृष्ण के अनुसार, जब हम अपने हर कार्य को स्वार्थ के बिना ईश्वर को अर्पण करते हैं, तब वही साधारण कर्म आत्मा की ऊँचाई बन जाता है। अध्याय 3 हमें अहंकार रहित सेवा, कर्तव्य-निष्ठा और समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराता है।
अतः कर्म योग केवल एक अध्याय नहीं, बल्कि जीवन जीने की विधि है।
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जय श्रीकृष्ण!
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