भगवद गीता अध्याय एक – अर्जुन विषाद योग | Bhagavad Gita Chapter 1 in Hindi

भगवद गीता अध्याय एक – अर्जुन विषाद योग | Bhagavad Gita Chapter 1 in Hindi


भगवद गीता अध्याय 1 – अर्जुन विषाद योग के 47 श्लोक अर्थ, महत्व और लाभ सहित


 प्रस्तावना

भगवद गीता धर्म, कर्म, और जीवन के मार्गदर्शन का महान स्रोत है। इसका पहला अध्याय अर्जुन विषाद योग कहलाता है, जिसमें महाभारत के युद्ध के पहले अर्जुन के मानसिक द्वंद्व और भावनाओं का वर्णन है। इस अध्याय में कुल 47 श्लोक हैं जो जीवन के महत्वपूर्ण संदेश देते हैं। यह अध्याय हमें सिखाता है कि जीवन में कठिन परिस्थितियों में भी हमें अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करना चाहिए।


👉इसका अगला भाग पढ़ने के लिए भगवद गीता अध्याय 2 – सांख्य योग देखें।


महत्त्व एवं लाभ

भगवद गीता अध्याय एक का महत्त्व और लाभ एक साथ समझना आसान है क्योंकि यह अध्याय जीवन के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालता है:

  • यह हमें सिखाता है कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों और धर्म के मार्ग पर चलते हुए भावनात्मक उलझनों और संकोचों से कैसे उभरना चाहिए।
  • अर्जुन के विषाद के माध्यम से हम समझ पाते हैं कि जीवन में जब भी हम मुश्किल फैसलों का सामना करें, तब हमें अपने विवेक और ईश्वर के मार्गदर्शन पर भरोसा रखना चाहिए।
  • यह अध्याय मानसिक संघर्ष और आध्यात्मिक परीक्षा की स्थिति को दर्शाता है, जिससे हमें आत्मनिरीक्षण और अपने अंदर की शक्ति को पहचानने का अवसर मिलता है।
  • अध्याय पढ़ने से जीवन में आने वाली दुविधाओं और तनाव को समझकर हम उन्हें सही दिशा में बदल सकते हैं।
  • इस अध्याय की समझ से व्यक्ति अपने मन की बाधाओं को दूर कर सही निर्णय ले सकता है।


> यहाँ ध्यान दें कि इस अध्याय के कुल 47 श्लोक हमें जीवन की कठिनाइयों और निर्णयों को समझने में मार्गदर्शन देते हैं।



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भगवद गीता अध्याय 1 – अर्जुन विषाद योग (श्लोक 1 से 47)


श्लोक 1

धृतराष्ट्र उवाच:

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||

अर्थ:

धृतराष्ट्र, जो कुरुक्षेत्र के राजा थे, उन्होंने अपने सारथी संजय से पूछा।

“धर्मभूमि और युद्धभूमि कहलाने वाले कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इकठ्ठा हुए मेरे पुत्रों और पांडवों ने अब क्या किया है?”

यह प्रश्न उस बड़ी चिंता और उत्सुकता को दर्शाता है जो राजा को अपने बेटों की सुरक्षा को लेकर थी।


श्लोक 2

सञ्जय उवाच:

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ||

अर्थ:

संजय ने कहा —

“दुर्योधन ने जब पांडवों की सेना को युद्ध के लिए सुव्यवस्थित और संगठित अवस्था में देखा, तो वह अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और बात करने लगा।”

यह दर्शाता है कि दुर्योधन की मन में भय और चिंता उत्पन्न हुई क्योंकि उसने देखा कि पांडवों की सेना कितनी मजबूत और व्यवस्थित है।


श्लोक 3

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||

अर्थ:

दुर्योधन ने अपने गुरु से कहा —

“हे आचार्य, आप अपने बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र द्वारा इस प्रकार व्यवस्थित और संगठित पांडवों की इस बड़ी सेना को देखिए।”

यह बताता है कि दुर्योधन ने अपने गुरु से इस सेना की ताकत का आकलन करने को कहा, शायद अपनी चिंता और भय को जताने के लिए।


श्लोक 4

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ||

अर्थ:

इस सेना में कई वीर योद्धा हैं जो अपने शौर्य और शस्त्र कला में महाशक्तिशाली हैं।

भीम और अर्जुन जैसे महान योद्धा यहाँ हैं, जो युद्ध में असाधारण ताकत और कौशल रखते हैं।

युयुधान, विराट और द्रुपद भी यहाँ मौजूद हैं, जो महारथी कहलाते हैं यानी ऐसे योद्धा जो युद्ध के सबसे कठिन मुकाबलों में विजयी होते हैं।

यह श्लोक पांडव सेना की वीरता और शक्ति का परिचय देता है।


श्लोक 5

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् |

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ||

अर्थ:

धृष्टकेतु, चेकितान, काशी के राजा और पुरुजित, कुन्तिभोज, शैब्य भी यहाँ हैं।

ये सभी युद्ध कौशल और वीरता में प्रसिद्ध योद्धा हैं।


श्लोक 6

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ||

अर्थ:

युधामन्यु, उत्तमौज, सौभद्र और द्रौपदी के पुत्र सभी महान महारथी योद्धा हैं।

यह दर्शाता है कि पांडव सेना की ताकत के प्रमुख स्तंभ ये योद्धा हैं।


श्लोक 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |

नायका मम सैन्यस्य संजय सारथिर्यथाऽऽचार्यः ||

अर्थ:

हे श्रेष्ठ ब्राह्मण (द्रोणाचार्य), आप मेरे सेना के प्रमुख योद्धाओं को पहचानिए।

यह दुर्योधन का अपने गुरु से निवेदन है कि वे उसे अपने प्रमुख योद्धाओं के नाम बताएं।


श्लोक 8

भूवानिर्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥

अर्थ:

इनमें भी भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र जैसे युद्ध में विजय पाने वाले महायोद्धा हैं।


श्लोक 9

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥

अर्थ:

और भी बहुत से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिए अपने प्राणों का त्याग करने का निश्चय कर लिया है। वे सभी विभिन्न प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित और युद्ध-कला में निपुण हैं।


श्लोक 10

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥

अर्थ:

हमारा बल, जो कि भीष्म पितामह द्वारा रक्षित है, असीम (अपर्याप्त) है; और इन पाण्डवों का बल, जो भीम द्वारा रक्षित है, सीमित (पर्याप्त) प्रतीत होता है।


श्लोक 11

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥

अर्थ:

आप सभी लोग अपनी-अपनी मोर्चों पर स्थित रहते हुए सभी दिशाओं में से विशेष रूप से भीष्म पितामह की रक्षा करें।


श्लोक 12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥

अर्थ:

उस समय कुरुवंश के वृद्ध और प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन को हर्षित करते हुए सिंह की भांति गर्जना की और ऊँचे स्वर में शंख बजाया।


श्लोक 13

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥

अर्थ:

उसके बाद शंख, नगाड़े, डमरू, मृदंग और रण घोष के अन्य वाद्य एक साथ बजने लगे, जिससे आकाश गूंज उठा और अत्यंत भयंकर शब्द हुआ।


श्लोक 14

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥

अर्थ:

फिर सफेद घोड़ों से जुते हुए सुंदर रथ पर सवार श्रीकृष्ण (माधव) और अर्जुन (पार्थ) ने भी अपने दिव्य शंख बजाए।


श्लोक 15

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः॥

अर्थ:

हृषीकेश श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्मों वाला भीमसेन (वृकोदर) ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।


श्लोक 16

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥

अर्थ:

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने ‘अनन्तविजय’ नामक शंख बजाया।

नकुल और सहदेव ने क्रमशः ‘सुघोष’ और ‘मणिपुष्पक’ नामक शंख बजाए।


श्लोक 17

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥

अर्थ:

परम धनुर्धारी काशी का राजा, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट और अपराजेय सात्यकि — ये सब वीर भी अपने-अपने शंख बजाने लगे।


श्लोक 18

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महारथः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्॥

अर्थ:

हे राजन्! द्रुपद, द्रौपदी के सभी पुत्र और महारथी अभिमन्यु (सौभद्र) ने भी अपने-अपने शंख बजाए।


श्लोक 19

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥

अर्थ:

उन शंखों की गर्जना से धृतराष्ट्र के पुत्रों के दिल दहल गए,

वह ध्वनि आकाश और पृथ्वी में गूँज उठी — बहुत ही भयानक थी।


श्लोक 20

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥

अर्थ:

कपिध्वज अर्जुन ने जब देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं,

तो उन्होंने युद्ध प्रारंभ होने के समय धनुष उठाया।


श्लोक 21

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥

अर्थ:

तब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा —

हे अच्युत! कृपया मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करें।



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श्लोक 22

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥

अर्थ:

मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध के लिए एकत्र ये लोग कौन हैं,

और मुझे इस युद्ध में किन-किन से लड़ना होगा।


श्लोक 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥

अर्थ:

मैं देखना चाहता हूँ कि वे कौन लोग हैं जो इस युद्ध में धृतराष्ट्र के बुद्धिहीन पुत्र के पक्ष में आकर उसके प्रिय बनने का प्रयास कर रहे हैं।


श्लोक 24

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥

अर्थ:

हे भारत! जब अर्जुन (गुडाकेश) ने ऐसा कहा,

तो श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच उस उत्तम रथ को खड़ा किया।


श्लोक 25

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥

अर्थ:

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा —

हे पार्थ! देखो, ये सब कौरव युद्धभूमि में एकत्र हुए हैं।

यह बात उन्होंने भीष्म, द्रोण और अन्य महारथियों के सामने कही।


श्लोक 26

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥

अर्थ:

वहाँ अर्जुन ने युद्ध के मैदान में खड़े हुए अपने पिताओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पोतों और मित्रों को देखा।


श्लोक 27

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥

अर्थ:

दोनों सेनाओं में अर्जुन ने अपने श्वसुरों और प्रियजनों को भी देखा। उन सभी संबंधियों को देखकर कौन्तेय अर्जुन अत्यंत व्याकुल हो गया।


श्लोक 28

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥

अर्थ:

कृपा से अत्यधिक व्याकुल होकर, शोक में डूबे हुए अर्जुन ने कहा — हे कृष्ण! मैं अपने स्वजनों को युद्ध के लिए खड़े देखकर बहुत दुःखी हूँ।


श्लोक 29

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥

अर्थ:

मेरा शरीर काँप रहा है, मुख सूख रहा है, शरीर थरथरा रहा है और रोंगटे खड़े हो गए हैं।


श्लोक 30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

अर्थ:

मेरा धनुष ‘गाण्डीव’ हाथ से गिर रहा है, त्वचा जल रही है, मैं खड़ा नहीं हो पा रहा और मेरा मन भ्रमित हो गया है।


श्लोक 31

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥

अर्थ:

हे केशव! मैं केवल अशुभ संकेत देख रहा हूँ, और मुझे अपने स्वजनों को युद्ध में मारकर कोई भलाई नहीं दिखाई दे रही।


श्लोक 32

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥

अर्थ:

हे कृष्ण! मुझे न तो विजय चाहिए, न राज्य और न ही सुख। हे गोविन्द! हमें राज्य, भोग और जीवन से क्या लाभ?


श्लोक 33

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥

अर्थ:

जिनके लिए हमने राज्य, भोग और सुख की कामना की, वे ही लोग आज युद्धभूमि में अपने प्राण और धन त्यागने को तैयार खड़े हैं।


श्लोक 34

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥

अर्थ:

गुरु, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुर, पोते, साले और अन्य संबंधी सभी इस युद्ध में सम्मिलित हैं।


श्लोक 35

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥

अर्थ:

हे मधुसूदन! मैं इन्हें मारना नहीं चाहता, चाहे वे मुझे मारने को ही क्यों न तैयार हों। मैं तो तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इन्हें नहीं मार सकता, फिर केवल इस पृथ्वी के राज्य के लिए क्यों मारूँ?


श्लोक 36

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥

अर्थ:

हे जनार्दन! इन कौरवों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी? इनको मारने से तो हम पाप के भागी बनेंगे।


श्लोक 37

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥

अर्थ:

इसलिए हे माधव! हमें अपने स्वजनों और कौरवों को मारना नहीं चाहिए। अपने ही लोगों को मारकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं?


श्लोक 38

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥

अर्थ:

अगर युद्धभूमि में शस्त्र हाथ में लिए कौरव मुझे निहत्थे और प्रतिरोध न करने वाले को मार डालें, तो भी मैं उसे श्रेष्ठ और कल्याणकारी मानूँगा।


श्लोक 39

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

अर्थ:

ऐसा कहकर अर्जुन ने युद्धभूमि में अपना धनुष-बाण नीचे रख दिया और अपने रथ में बैठ गया। उसका मन शोक और विषाद से भर गया था।


श्लोक 40

सञ्जय उवाच:

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥

अर्थ:

संजय ने कहा — इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण से "मैं युद्ध नहीं करूंगा" ऐसा कहकर, नींद पर विजय प्राप्त अर्जुन चुप हो गया और मौन धारण कर रथ में बैठ गया।


श्लोक 41

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥

अर्थ:

हे भारत (धृतराष्ट्र)! सेनाओं के बीच में विषाद (दुख) में डूबे अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए इस प्रकार कहा।


श्लोक 42

अर्जुन उवाच:

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥

अर्थ:

अर्जुन ने कहा — हे कृष्ण! जब मैं युद्ध के लिए तैयार अपने स्वजनों को देखता हूँ, तो मेरे अंग ढीले हो जाते हैं और मेरा मुँह सूखने लगता है।


श्लोक 43

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते॥

अर्थ:

मेरे शरीर में कंपन हो रहा है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा धनुष गाण्डीव हाथ से गिर रहा है, और त्वचा जलती सी प्रतीत हो रही है।


श्लोक 44

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव॥

अर्थ:

मैं खड़ा नहीं रह पा रहा हूँ, मेरा मन चक्कर खा रहा है, और हे केशव! मैं केवल अपशकुन ही देख रहा हूँ।


श्लोक 45

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥

अर्थ:

हे कृष्ण! युद्ध में अपने ही लोगों को मारकर मुझे कोई कल्याण नहीं दिखता। न मैं विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुख।


श्लोक 46

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च॥

अर्थ:

हे गोविन्द! हमें राज्य, भोग या जीवन से क्या लाभ? जिनके लिए हम यह सब चाहते हैं, वही जब युद्ध में मारे जाएंगे तो ये सब व्यर्थ हैं।


श्लोक 47

सञ्जय उवाच:

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

अर्थ:

संजय ने कहा — इस प्रकार कहकर, अर्जुन युद्धभूमि में रथ के भीतर बैठ गया। उसने अपने धनुष-बाण त्याग दिए और उसका मन शोक से व्याकुल हो गया।




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निष्कर्ष (Conclusion):

"अर्जुन विषाद योग" न केवल युद्ध की भूमिका प्रस्तुत करता है, बल्कि एक ऐसे महान योद्धा की आंतरिक द्वंद्व और करुणा को प्रकट करता है, जो धर्म और अधर्म के बीच फँसा हुआ है। यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि केवल बाहरी विजय नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और सही निर्णय का महत्व अधिक है।


भगवान श्रीकृष्ण के साथ संवाद की शुरुआत यहीं से होती है, जो आगे चलकर जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करती है। यह अध्याय हमें यह भी सिखाता है कि किसी भी कार्य को करने से पहले विवेक, करुणा और धर्म की दृष्टि से सोचना कितना आवश्यक है।


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🙏JAI SHREE KRISHNA!🙏




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